Wednesday, June 29, 2011

कैसे मैं जिया

ओंम प्रकाश नौटियाल


इस जिन्दगी को कितने संताप से जिया,
पुण्य से जिया कभी, कभी पाप से जिया।

हावी रहा जीवन भर, जिन्दगी खोने का डर,
दहशत से मौत की मैं काँप काँप के जिया।

हालात जीने के न थे, फिर भी मैं जी लिया,
मुझमें कहाँ था ज़ज्बा, प्रभु प्रताप से जिया।

कुछ दर्द जो मिले , थे वो दर्दीले इस कदर,
भर भर के आहें ,उनके ही आलाप से जिया।

जैसे नचाया जिन्दगी ने बस मैं नाचता रहा,
वक्त की दस्तक पर, उसकी थाप से जिया।

ताउम्र संघर्ष रत रहा, मैं जीने की जुगत में,
कई किये जतन, बडे क्रिया कलाप से जिया।

सुख से रही अदावत और खुशियों से दुश्मनी,
रंज-ओ-गम के साथ मेल मिलाप से जिया।

झंकार से जिया , तो कभी टंकार से जिया,
चरणों में भी झुका, कभी अहंकार से जिया।

कुछ को अजीज, खास समझने का भ्रम पाल,
खा खा के धोखे ,प्रलाप और विलाप में जिया।

(मेरी पुस्तक "साँस साँस जीवन" से
ompnautiyal@yahoo.com : 09427345810)

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