Friday, September 24, 2010

दोहे खेल के

-ओंम प्रकाश नौटियाल

खेलों के आयोजक बाँटते रोज अनूठा ज्ञान,
माप दंड गर बदल दो गूलर भी पकवान।

सब चीजें भगवान की कुछ गन्दा न साफ़,
कीच वाली नज़र से साफ़ न लगता साफ।

खेल खेल में चली दुरन्तो दलाली वाली रेल,
पहले से खाए पिए तो भी माल रहे हैं पेल।

सोचें सारे गाँव देश के, कैसा यह खेल गाँव,
करोडों गया डकार पर नहीं वृक्षों की छाँव।

पुल टूटे ,सीलिंग गिरे, छोटी मोटी है बात,
छोटे अपशकुन ही बचाते बडी बडी वारदात।

मुद्दत में मौका मिला, मत जाना कहीं चूक,
माल-ए-मुफ़्त गटकने से खुलती,बढ़ती भूख।

’ओंम’ रोम रोम से बस यही दुआ है आज,
खेल सफल निर्विघ्न हों बचे देश की लाज।