Saturday, June 11, 2011

कलियुग मे ’मोहन’

-ओंम प्रकाश नौटियाल


उठाते थे निज उंगली पर कभी पर्वत समूचा जो,
वह ’मन’ ’मोहन’ भी कितने लाचार से लगते ।

नचाते थे कभी वंशी की धुन पर गोपियाँ सारी,
उनको बेसुरे कुछ लोग, अपने अनाचार से ठगते।

मनचलों की मनमानी, मनहूस मन्सूबों के किस्से ,
मन मन ही ’मोहन’ को किसी तलवार से चुभते।

सभी सृष्टि है ’मोहन’ की तभी मजबूरी है सहना,
यह मनसबदार सारे पर बडे मक्कार से लगते ।

फ़सल जो पैदा की जनता के उपभोग की खातिर ,
उसे चरने में कोई शर्म ये उनके साथी नहीं करते।

’ओंम’ इस घोर कलियुग में ’मोहन’ भी विवश हैं,
राजा हो या दिग्विजयी , नहीं फ़टकार से डरते।

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