Sunday, October 30, 2016
Saturday, October 29, 2016
तम है जीवन में तभी
तम है जीवन में तभी, सुंदर लगे प्रकाश
ज्यों अँधियारी रात में, तारों से आकाश !!!
- ओंम प्रकाश नौटियाल
ज्यों अँधियारी रात में, तारों से आकाश !!!
- ओंम प्रकाश नौटियाल
Wednesday, October 26, 2016
Monday, October 24, 2016
दो मुलायम दोहे !
कहा मुलायम बाप ने, होकर जरा कठोर
पद पाकर तू मचा रहा, बहुत आजकल शोर !
कही बात पर ध्यान दें, तय करें फिर आप
मैं हूं तेरा बाप या, तुम हो मेरे बाप !!
-ओंम प्रकाश नौटियाल
पद पाकर तू मचा रहा, बहुत आजकल शोर !
कही बात पर ध्यान दें, तय करें फिर आप
मैं हूं तेरा बाप या, तुम हो मेरे बाप !!
-ओंम प्रकाश नौटियाल
कहानी
टिनू-ओंम प्रकाश नौटियाल ,बड़ौदा , मोबाइल 9427345810
लगभग पाँच दशक पूर्व के जमाने की बात है । टिनू की उम्र 13 वर्ष के करीब रही
होगी जब उसने मुझे अपने घनिष्ठ मित्र के
रूप में स्वीकार किया था । मैं उससे शायद 2 वर्ष छोटा रहा हूंगा।
टिनू हद दर्जे का शरारती था । उसकी
शरारत के किस्से आस पास के गाँवों में भी मशहूर हो गए थे। उसकी शरारते बालपन की
हदें अकसर तोड़ जाती थी और गाँव के बड़ों की नज़रों में अक्षम्य अपराध का रूप धारण कर
लेती थी ।गाँव में लगभग सभी माँ बाप अपने बच्चों को उसके साथ खेलने से मना करते थे
। पर फिर भी उसकी टोली में दोस्तों की कमी कभी नहीं दिखाई दी । उसके साथ साथ रहने
में सभी बच्चे अपने को बहुत सुरक्षित तो
महसूस करते ही थे साथ ही साथ सभी उसके साथ
रहकर मिलने वाली थ्रिल तथा साहस और बहादुरपन की भावना का भी आनंद लेना चाहते थे जो
उस उम्र में तो सबको बहुत पसंद आती है।
उसके साथ देख लिए जाने पर सब के
पास तैय्यार बहाने होते थे ,
"मैं रमेश , विरेश और विमल खेल रहे थे वह
भी आ गया कि मुझे भी खिला लो अब हम उसे मना तो नहीं कर सकते थे " आदि आदि । फिर टिनू भी बड़ा वाक पटु और हाजिर जवाब था । उसे भली भाँति
ज्ञात था कि उसके साथ खेलने को मना किया जाता है । वह सभी के माता पिता को श्रद्धा
से नमन करता था और उनके हाल चाल पूछ कर कहता था , "चाचा
जी , आज भी मोहन नहीं आया खेलने। हम तो बस यहीं कुछ देर चोर
सिपाही खेलते हैं। जल्दी ही खेल खत्म कर देते हैं क्योंकि सबको होम वर्क करना होता
है। आप उसकॊ भेजिए न कल से। " और उनके जाने के बाद मोहन
को आवाज लगा कर कहता था, " निकल आ बाहर, चले गए तेरे पिताजी भूसा लाने"
उधर मोहन के पिता सोचते थे कि यह
टिनू उतना बुरा भी नहीं है जितना लोग उसे बताते हैं और उनकी यह धारणा उसकी अगली
शरारत के किस्से सुनने तक दिमाग में घर किए रहती थी ।टिनू भी अपने साथ उन बच्चों
को रखना पसंद करता था जिनको सब सीधे शरीफ़ समझते थे और जो पढने में अच्छे होते थे ।
वह भी शायद अपने को उनके बीच में सुरक्षित समझता था । फिर किसी प्रकार की
प्रतिस्पर्धा का भी कोई खतरा नही था और ऐसे सभी बच्चे डर या रोमांच के कारण उसका हर काम में साथ देते थे । वह भी अपने
साथियों का पूरा खयाल रखता था बस उसका हुक्म तामील होना चाहिए ।
उसे एक हुक्म बजाने वाले अच्छे जहीन बच्चों कि टोली की
जरूरत थी । शैतानी वगैरह के लिए वह खुद ही
किसी भी दुस्साहस के लिए तैय्यार रहता था । स्कूल में पढाई मे कमाई इज्जत के कारण
वह मेरा विशेष ध्यान रखता था । सदा बड़ी आत्मीयता से बात करता था और पक्ष भी लेता
था। उसे शायद इस बातकी उम्मीद थी कि मुझे
साथ रखने से लोगों की नजर में उसकी छवि भी सुधर सकती है ।
कई बार पिताजी से लोग शिकायत भी कर
देते थे कि मैं उसकी टोली में घूमते देखा गया हूं । पिताजी मुझसे इस विषय में कोई
सीधा सवाल तो नहीं करते थे पर कभी कभी उसकी संगति से होने वाले दुष्परिणामों के
बारे में अवश्य आगाह कर दिया करते थे। उनका प्रवचन कुछ इस तरह होता था ।
" अब वह दिनेश मास्टर जी का टिनू
है । मास्टर जी अपने आप इतने शरीफ हैं पर वह सुना है वह अव्वल दर्जे का बदमाश है ।
इतनी सी उम्र में उसके यह हाल हैं बाद में न जाने क्या करेगा । सुना है छुप कर
सिगरेट पीता है । पढने लिखने मे उसे कोई रुचि नही है दिन भर जंगल, नदी बाग बगीचों में घूमता फिरता है ।बगीचों से फल चुराता है । भोलू माली
कह रहा था किसी दिन हाथ लग गया तो टाँगे तोड दूंगा उसकी और बंद कर दूंगा वहीं
कोठरी मे, मास्टर जी आएंगे तभी छोडूंगा । कभी जंगलात में
गार्ड के हाथ लग गया न तो बडी धुनाई होगी उसकी । उसके साथ रहने का मतलब न केवल
बदनाम होना है वरन इन सारे खतरॊं से खेलना भी है ।"
अब उन्हे क्या पता कि यह सब कुछ
हमारी भागेदारी में होता है । हम उसकी हिम्मत और चुस्ती पर इतने मुग्ध थे कि यह
बात ही बड़ी हास्यापद लगती थी कि वह बूढ़ा
भोलू या लंगड़ा गार्ड़ उसे कभी पकड़ भी सकता है । पिताजी की सिगरेट वाली बात
एकदम सही थी लेकिन उसकी तारीफ में आज यही कह सकता हूं कि उसने कभी किसी दूसरे लड़के
को सिगरेट पीने के लिए बाध्य नहीं किया ।इसका कारण यह हो सकता है कि उसके पास पैसे
तो होते नहीं थे वह सिगरेट के अध पिए बट इकट्ठे किया करता था और औरों से भी लाने
को कहता था ।शायद उसे लगता होगा की सिगरेट के सीमित कोटे में औरों को साझेदार
बनाना ठीक नहीं है । अशोक और अभय को वह खास ताकीद देता था ,"अरे अशोक , अभय तुम दोनों के पिताजी तो दिन रात धुँआ छोड़ते हैं । बडे बट लाया करॊ साथ
में एकाध सिगरेट भी पैकॆट से निकाल लिया करो चाचा जी को कुछ पता नहीं चलेगा ।"
उसका सिगरेट पीने का काम छुपम छुपाई के दौरान चलता था जिसमें हम लोग
कही दूर खेत में किसी की उगाड़ या उस जमाने में घर से बाहर बनें गुशलखाने में छिपते थे और उसकी इस कला को
निहारते थे । वह धुंए के छल्ले और अन्य आकृतियाँ बनाने में महारथी हो गया था।
निकलने के बाद वह पानी से बहुत देर तक कुल्ला करता था और फिर संतरे वाली मिठाई की
गोली खाता था । बड़ो के सामने तब कोई सिगरेट नहीं पीता था और फिर बड़ा चाहे
रिश्तेदार हो या गाँव का कोई । फिर टिनू तो छोटा था वह इस बात का विशेष खयाल रखता
था कि किसी को पता न चले , वैसे ही कोई शक करता है तो करता
रहे। उस जमाने मे आँखों के सामने गाँव के
सभी बड़ों, बुजुर्गों को लड़के बहुत इज्जत देते थे।
मुझे याद है एक बार गाँव के कुछ
युवक गाँव की चाय की दुकान के भीतरी कमरे
में चाय की चुस्कियों के साथ गपशप कर रहे
थे, एक उनमें सिगरेट
भी पी रहा था । तभी गाँव के एक बुजुर्ग ने दुकानदार से अखबार की तलब करते हुए भीतर
प्रवेश किया और एक अलग पड़ी कुर्सी पर बैठ गया। सभी लड़कों ने ताऊ को राम राम की ।
उन दिनों गाँव में शायद ही कोई घर पर अखबार लेता हो सब दुकान पर आकर पढ़ते थे
। सिगरेट वाले लडके ने कुछ देर सिगरेट हाथ
में छुपा कर रखी कि शायद ताऊ चला जाए और टालने के लिए कहा भी "ताऊ आज का अखबार अभी अभी मास्टर जी ले गए
हैं घन्टे भर बाद दे देंगे ।" पर ताऊ तो वक्त बिताने आया था जम गया । थोडी
देर में जब उस लडके का हाथ जलने लगा तो उसने सिगरेट छोड़ दी और अपनी समझ में पैर से
मसल कर बुझा दी । चंद मिनट बाद ही दुकान से धुंआ उठने लगा जो जल्दी से पूरी दुकान
में फैल गया । सब लोग खाँसते हुए बाहर निकले और पान भिगाने की बाल्टी का पानी उधर फेंक
दिया । दरअसल जलती सिगरेट नीचे गिरे अखबारों पर पडी और वो आग पकड गए । पीछे ही
छोले के और चाट के दौने रखे थे उनमे भी आग फैल गई फिर पुराने अखबारों की ढेरी तक
पहुंची आग काफी तीव्रता से फैल गई । गाँव के सब आदमी जमा हो गए और अपने अपने घरों
से पानी ला लाकर लगभग आधा घन्टे में उस आग पर काबू पाया । उसके बाद दुकान में फैली
गंदगी साफ करने में भी वहुत वक्त लगा पर उन युवकों के और गाँव वालों के मिले जुले
प्रयासों से सब लगभग पूर्व वत हो गया सिवाय थॊड़ी बहुत नुकसान के। तजुरबेकार लोगों
ने शायद आग का कारण भाँप लिया था क्योंकि रघु चाचा उस ताऊ को कह रहे थे ,"अरे बंसी जहाँ लौंडे बैठे हों उनके बीच मे तुम्हे नहीं बैठना चाहिए"।
खैर ।
गर्मियों की छुट्टियाँ हो गई थी ।
पिताजी 09.30 बजे कार्यालय चले जाते थे फ़िर शाम को 06.30 से पहले तो शायद ही कभी
लौटते हों ।माँजी अध्यापिका थी । प्राइमरी स्कूल था उनकी छुट्टियों में अब भी लगभग
20 दिन शेष थे। हम सब दोस्तों की दिन भर मस्ती होती थी ।पिताजी मुझे ताकीद देकर
जाते थे कि दिन में बाहर न घूमू , आँखे खराब हो जाती हैं । किसी पुस्तकालय से लाकर एक दो अच्छी साहित्यिक
पुस्तक भी नियम से देते थे । मैं पुस्तकॊ को दिन और रात के समय में पढ लेता था जिस
से दिन का समय दोस्तों के लिए बचा रहे।
ऐसी ही एक गर्मियों की छुट्टियोँ
की दोपहर थी । टिनू की आवाज सुनाई दी । वह मुझे बाहर बुला रहा था। मैंने जल्दी से
अपना सामान इक्ट्ठा किया और बाहर निकला । वहाँ पहले से ही पूरी मित्र मंडली जमा
थी- टिनू समेत रमेश, विरेश,
अशोक, अभय, गोविन्द सभी आ चुके थे। मुझे देखते ही सबकी
बाँछे खिल गई। मेरे आते ही टिनू ने हम सबको सड़क के किनारे बुला कर बिना वक्त खोए
संबोधित किया ।" आज सिवाने वाले आम के पेड़ों से आम तोडने हैं । पूरा पेड़ लदा
हुआ है ।आम गदरे हो गए हैं कुछ पक भी गए हैं । हम सिवाने के खेत पार कर वहाँ
पहुँचते हैं ।वहाँ इस वक्त कोई नहीं होता है ।दूर दूर तक हल चलाए हुए खाली खेत हैं ।बाकी वहीं पहुंच कर तय करते हैं । और
हाँ हम लोग दो दो के ग्रुप में वहा पहुँचेगें । पूरी टोली देखकर लोग वैसे ही शक कर
लेते हैं ।और हाँ ! जैसा कि मैं बार बार कहता हूं कोई भी कि्सी को उसके असली नाम से नहीं पुकारेगा । लगभग आधा घन्टा
बाद हम सब वहाँ एकत्र हो गए । दिन के बारह बजे का समय था । सूरज सर पर था धूप तेज
थी । चारों तरफ सुनसान पसरा था ।आम के दो पेड खेतों के उस पार वाली सडक पर थे
दोनों आम से लदे थे ।यही सड़क श्मसान को भी उतर जाती थी जो कि नदी किनारे स्थित था
। श्मसान से कुछ उत्तर की ओर लम्बी सीढियाँ नदी में उतरती थी जहा किनारे पर ही एक
शिव मंदिर था । दोनों पेड़ दरअसल सड़क किनारे की बाड़ का हिस्सा थे ।बाड़ मे अधिकतर सिमालू
की चार फीट के लगभग ऊंची झाडियाँ थी ।
पेडों से पत्थर मार कर आम तोड़ने को
की प्रक्रिया अव्यवहारिक सी थी ।लग्गी हम साथ रखते नहीं थे क्योकि खतरे की दशा में
उसके साथ भागना आसान नहीं है फिर उसे लेकर चलना अभियान की पोल पहले ही खोल देता है
।खैर दोनों पेड़ों का निरीक्षण करने के बाद तय हुआ कि उनमें से एक पेड पर
अपेक्षाकॄत आसानी से चढा जा सकता है और चढकर कई डालियाँ और उनके आम तोडने की पहुँच
के अंदर होंगे। चढ़ने के लिए हमारे नेता टिनू ने खुद ही अपने को प्रस्तावित किया
इसलिए सब काम बहुत सरल हो गया।
तीन लड़कों का पिरामिड़ बना जिसमे
सबसे उपर टिनू था और देखते ही देखते टिनू
लगभग नौ फीट उँचाई पर पेड़ के उस
भाग पर पहुंच गया जहाँ से शाखाएं अलग होती थी ।
विरेश नीचे बडे थैले के साथ था । सिमालू की एक लम्बी डन्डी तोडकर हमने उसे दे दी जिससे उन आमों को भी तोडा
जा सके जो हाथों की पहुँच से कुछ बाहर हैं ।वह इत्मीनान से आम तोड़ रहा था और नी्चे
हम उन्हें कैच कर के उस बडे थैले में रख रहे थे । वह डालों पर मंडराने लगा । बड़ा थैला आधे से भी अधिक भर
गया था , हम
उसे नीचॆ उतरने के लिए कह रहे थे पर उसका एक ही जवाब होता था ,"जरा रुको" उपर चढ़कर आम ही आम देखकर उसका लालच बढता जा रहा था । हम
कुछ डर भी रहे थे । उसी वक्त सिमालू की झाडियों में कुछ सरस्राहट हुई और तभी अचानक
मंदिर का एक महात्मा जो झाडियों के पीछे
से अचानक प्रकट हुआ उसने विरेश के हाथ से
आम का थैला छीन कर गुस्से में हमे लताडना शुरु कर दिया । उन आम के वृक्षो की
रखवाली और सेवन मंदिर के महात्मा ही किया करते थे ।यह बात शायद टिनू को पता थी पर
वह हमें पहले बता कर हमारे मन में किसी प्रकार का भय नहीं आने देना चाहता था ।
दरअसल मंदिर जाने वाले किसी
श्रद्धालु ने मंदिर में महत्मा को शिकायत कर दी कि कुछ लड़के आम तोड़ रहे हैं । यह
बात सुनते ही महात्मा क्रोध में सीढियों से उपर आए और झुककर , छुपकर सिमालू की झाडियों के साथ साथ चलते हुए एक्दम हमारे कार्यस्थल पर
प्रकट हुए और झपट कर विरेश से थैला छिनते
हुए बरस पडे, अरे तुम लोग भले घर के लडके हो । यह चोरी का काम
करते हो । छुट्टियाँ है तो घर बै्ठो , अच्छी, अच्छी किताबे पढ़ो, घर के काम में हाथ बटाओ , गाय की सेवा करो , पानी भरने का काम करो , मंदिर जाओ प्रवचन सुनो दिन मे कुछ देर आराम करो । पर तुम लोग दिन भर यह
आवारागर्दी करते हो । तुम्हारे माँ बाप को पता चलेगा जो कि अब चलेगा ही तो क्या
सोचेंगे वह लोग ? ..." इस बीच टिनू नीचे उतरने की
प्रक्रिया में था और कूद मारकर महात्मा जी के सामने हाथ जोड कर खड़ा हो गया । बडे
विनम्र भाव से हाथ जोड़ कर बोला ,
" महात्मा जी हमे माफ कर दीजिए । हमें तो बताया था कि इन पेडों
से कोई भी आम तोड सकता है इन पर किसी का कब्जा नहीं है। इसलिए हम लोग इतनी दूर
चलकर गाँव से यहाँ आए । चोरी करनी होती तो गाँव मे क्या कम पेड है ? हम तो परिवार के लिए आम इकट्ठा कर रहे थे और यहाँ यही सोच कर आए थे कि यह
वृक्ष सबके हैं । माफ कर दीजिए ।" महात्मा उसकी बात और लहजे से कुछ पसीजते
दिखाई दिए , बोले,
" अरे आम का पेड़ क्या तुम बच्चों के चढ़ने के लायक होता है ।
हड्डी पसली टूट गई तो जिंदगी भर के लिए अपाहिज हो जाओगे । जरा से लालच के लिए ऐसा जोखिम उठाते हो !" टिनू फिर बोला ,"
जी बहुत बडी गलती हो गई । हम तीन घन्टे से यहाँ मेहनत कर रहे थे कि
घर वाले आम देखकर खुश हो जाएंगे।"
महात्मा को कुछ और दया आई चार चार
आम निकाल कर बच्चों को देने लगे ,"
लो और आइन्दा गलत काम मत करना, अच्छी बातें
सीखो और
सलीके से रहो।" टिनू फ़िर हाथ
जोड्कर बोला , " बस इतने से आम हमने इतनी मेहनत की , जोखिम भी उठाया,
कम से कम आधे तो हमें मिलने ही चाहिए। अगर आप किसी से तुड़वाते तो वह
भी आधी बाँट पर ही तोड़ता। वैसे आजकल में
आपको यह तुड़वाने ही थे । आगे से आप हमे कह दीजिएगा हम तोड़ देंगे । अभी तो आप आधे
आधे कर दीजिए । हमने जो भी किया अनजाने में किया पर आपको तो मजे से तुड़े तुड़ाए आम
मिल गए ।"
महात्मा ने हल्के तर्क वितर्क के
साथ हथियार डाल दिए और आधे आधे करने के लिए तैयार हो गया ।"वहाँ उस खेत में
जहाँ दायं चलने की जगह है वहाँ करते हैं साफ सुथरे में ।" टिनू ने कहा ।
" और हाँ महात्मा जी थैला
मुझे दीजिए आधे आधे मैं करूंगा । मुझे पता है कि कैसे कैसे आम हैं । हर तरह के पके
आमों के मैं आध आधे करूंगा ।" दायं की ओर चलते हुए टिनू बोला । यह कहते गुए
टिनू ने महात्मा के हाथ से थैला लगभग छीन लिया। महात्मा ने भी इस जिद का कोई प्रतिरोध
नहीं किया ।
थैला लिया ही था कि टिनू ने दौड
लगा दी और चिल्लाया ," अरे सोहन , दीपू , रामू . नरेश
, विरेन्द्र भागो " । महात्मा गुस्से में आगबबूला
लड़्कों के पीछे दौडने लगे , " अरे बदतमीजों , डाकुओं मै तुम सबको पुलिस के हवाले कर दूंगा । " उधर टिनू दौडता हुआ
कुछ आगे रुका और मुड़कर बोला , " अरे महात्मा आम खाएगा ।
ले आ जा । आधे लेगा? बड़ा मालिक बनने चला है ।" हम लोगों
ने उससे कहा, "अरे चल अब , वह आ
जाएगा ।" "अरे यह बुढाउ हल चलाए खेतों मे कहाँ भाग सकता है ?"
"बदतमीजों मोहन राम मास्टर को मैं जानता हूं । उसी का
लड़का है न यह सोहन ? शाम
को गाँव आकर तुम्हे पिटवाऊँगा भी और पुलिस के हवाले भी करवाऊँगा ।महात्मा कुछ दूर
दौड़ कर बडबडाता हुआ वापस चला गया । टिनू ने महात्मा के सामने जो नाम लिए थे
वह उन सब लडकों के थे जो चाहकर भी टिनू
गैंग अपने माता पिता की जबर्दस्त सख्ती के
कारण जाइन नहीं कर पाए थे।
उस दिन शाम को सोहन के घर के सामने
बहुत भीड जमा थी । लोग कह रहे थे कि सोहन को उसके पिताजी ने मंदिर के महात्मा की शिकायत पर बहुत पीटा है । उसकी एक न
सुनी ।
उधर हम लोग मोती की उगाड़ में आराम
स्रे आम चूस रहे थे ।
करवाचौथ
निशा नार नयनों के
सर्जिकल प्रहार से
रूप की बहार से
टक टकी की मार से
थका चाँद सो गया
मीठे स्व्प्न खो गया
लो ! सबेरा हो गया !
-ओंम प्रकाश नौटियाल
सर्जिकल प्रहार से
रूप की बहार से
टक टकी की मार से
थका चाँद सो गया
मीठे स्व्प्न खो गया
लो ! सबेरा हो गया !
-ओंम प्रकाश नौटियाल
करवाचौथ दोहे
पति की रक्षा के लिए, पत्नी का उपवास
व्रत हर हाल सफल रहे,पति का यही प्रयास
व्रत हर हाल सफल रहे,पति का यही प्रयास
-----
शशि ने देखा छुपछुपा,चन्द्रमुखी श्रृंगार
लुप्त हुआ फिर लाज से, ऐसी छवि निहार
______
थाल लिए सजधज खड़ी , जोहें चन्दा बाट
चंद्र मुकबिल सज रहे, निकलेंगे कर ठाट
--ओंम प्रकाश नौटियाल
कुछ लघु कथाएं !
लघु कथा-1
36 दिन बाद उसे होश आ गया !- ओंम प्रकाश नौटियाल, बडौदा,मोबा.9427345810
मित्रॊं ! अब वह कौमा से बाहर है ,फ़िलहाल चिन्ता की कोई बात नहीं है ।
36 दिन तक लगातार कौमा में रहने के बाद कल साँय 5 बजे उसने बात की ।भगवान का लाख लाख शुक्र है
घर में इतने लम्बे अर्से के बाद फिर से खुशियाँ लौट आई ।चार वर्ष की अल्पायु में उसे अनेकों बार बेहोशी के लम्बे दौरे पड.चुके हैं , विशेषज्ञों की हर बार बस एक ही राय होती है।मौसमी बिमारी है ठीक हो जाएगी,आजकल तो बहुत से बिमार हैं । सचमुच बिमारी मौसमी है ,तभी तो हर मौसम में हो जाती है । पर यह बिमारी मच्छरों की देन नहीं है इसमें चिकन गुनिया , डेंगू , मलेरिया के कोई लक्षण नहीं है इसमॆं तो बस बोलती बिल्कुल बंद हो जाती है।
जिस अस्पताल से उसका जन्म हुआ था वहाँ के लगभग सभी डाक्टरॊं से मैने रोज ही उसकी दशा के बारे में बात की , घर पर देखनें तो कोई नही आया , हाँ , एक दो दिन में ठीक हो जाने की जबानी तसल्ली अवश्य मिलती रही । मुझे उनकी संवेदनहीनता पर कई बार क्रोध भी आता था, पर उनका पाला तो रोज ऐसे कितने ही दुखी जनों से पडता था । दास्त्तां-ए-गम सुनने का उन्हे बहुत अभ्यास था ।
पर मेरी परेशानी हर गुजरते दिन के साथ बढती जा रही थी । तीस दिन गुजरने के बाद तो चिन्ता घोर निराशा में बदलने लगी । यह नन्हा क्या कभी फिर से होश में आ पाएगा ? सभी लोगों की आवाज में बोलने में सक्षम, क्या यह फिर चहचहाएगा, किलकारियाँ मारेगा ? मित्रॊं और रिश्तेदारों के साँत्वना स्वर भी अब चुभने लगे थे।सबसे ज्यादा तकलीफ तो तब होती थी जब गुजरात से बाहर रहने वाले मित्र व रिश्तेदार मोबाइल पर फोन कर कुछ इस तरह की बातें कह्ते थे , " अरे क्या हुआ , ऐसी बिमारी तो हमारे यहाँ भी होती रहती है, एक दो दिन में इलाज़ हो जाता है । गुजरात तो इतना विकसित प्रदेश है ,वहाँ सब सुविधाएं उपलब्ध हैं ।फिर वहाँ इस साधारण बिमारी को इतना गंभीर रुप क्यॊं लेने दिया गया ? तीन चार महीने पहले भी वह इसी तरह लम्बी बेहोशी में चला गया था । "
इन बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था । बस दर्द और बढ़ जाता था । सबकुछ सुनना पड रहा था ।
तीन दिन पहले ही मैंने अंतिम प्रयास के रुप में अस्पताल के प्रमुख डाक्टर ,जो अहमदाबाद के बडे अस्पताल में बैठते हैं, उन्हें ई-मेल द्वारा विस्तार से बिमारी के इतिहास व सभी लक्षणों से अवगत कराया । अब उन्होने वडोदरा में अपने मातहत डाक्टरों को क्या सलाह दी यह तो मैं नहीं जानता , पर कल साँय पाँच बजे उसके अचानक बोल उठने से घर भर आश्चर्य मिश्रित खुशी में झूम उठा ।
36 दिन बाद आखिरकार मेरे लैन्ड लाइन फोन को नई जिन्दगी मिली । सब परम पिता परमात्मा की कृपा है , व आप जैसे मित्रों की शुभकामनाओं का फल है। दुआ किजिए कि मेरे चहेते को फिर कभी यह बिमारी ना लगे और वह हमेशा खट्टी मीठी बातों से घर में रौनक बनाए रक्खे ।
आपका अपना
ओंम प्रकाश नौटियाल,बडौदा , मोबा.9427345810
36 दिन तक लगातार कौमा में रहने के बाद कल साँय 5 बजे उसने बात की ।भगवान का लाख लाख शुक्र है
घर में इतने लम्बे अर्से के बाद फिर से खुशियाँ लौट आई ।चार वर्ष की अल्पायु में उसे अनेकों बार बेहोशी के लम्बे दौरे पड.चुके हैं , विशेषज्ञों की हर बार बस एक ही राय होती है।मौसमी बिमारी है ठीक हो जाएगी,आजकल तो बहुत से बिमार हैं । सचमुच बिमारी मौसमी है ,तभी तो हर मौसम में हो जाती है । पर यह बिमारी मच्छरों की देन नहीं है इसमें चिकन गुनिया , डेंगू , मलेरिया के कोई लक्षण नहीं है इसमॆं तो बस बोलती बिल्कुल बंद हो जाती है।
जिस अस्पताल से उसका जन्म हुआ था वहाँ के लगभग सभी डाक्टरॊं से मैने रोज ही उसकी दशा के बारे में बात की , घर पर देखनें तो कोई नही आया , हाँ , एक दो दिन में ठीक हो जाने की जबानी तसल्ली अवश्य मिलती रही । मुझे उनकी संवेदनहीनता पर कई बार क्रोध भी आता था, पर उनका पाला तो रोज ऐसे कितने ही दुखी जनों से पडता था । दास्त्तां-ए-गम सुनने का उन्हे बहुत अभ्यास था ।
पर मेरी परेशानी हर गुजरते दिन के साथ बढती जा रही थी । तीस दिन गुजरने के बाद तो चिन्ता घोर निराशा में बदलने लगी । यह नन्हा क्या कभी फिर से होश में आ पाएगा ? सभी लोगों की आवाज में बोलने में सक्षम, क्या यह फिर चहचहाएगा, किलकारियाँ मारेगा ? मित्रॊं और रिश्तेदारों के साँत्वना स्वर भी अब चुभने लगे थे।सबसे ज्यादा तकलीफ तो तब होती थी जब गुजरात से बाहर रहने वाले मित्र व रिश्तेदार मोबाइल पर फोन कर कुछ इस तरह की बातें कह्ते थे , " अरे क्या हुआ , ऐसी बिमारी तो हमारे यहाँ भी होती रहती है, एक दो दिन में इलाज़ हो जाता है । गुजरात तो इतना विकसित प्रदेश है ,वहाँ सब सुविधाएं उपलब्ध हैं ।फिर वहाँ इस साधारण बिमारी को इतना गंभीर रुप क्यॊं लेने दिया गया ? तीन चार महीने पहले भी वह इसी तरह लम्बी बेहोशी में चला गया था । "
इन बातों का मेरे पास कोई जवाब नहीं था । बस दर्द और बढ़ जाता था । सबकुछ सुनना पड रहा था ।
तीन दिन पहले ही मैंने अंतिम प्रयास के रुप में अस्पताल के प्रमुख डाक्टर ,जो अहमदाबाद के बडे अस्पताल में बैठते हैं, उन्हें ई-मेल द्वारा विस्तार से बिमारी के इतिहास व सभी लक्षणों से अवगत कराया । अब उन्होने वडोदरा में अपने मातहत डाक्टरों को क्या सलाह दी यह तो मैं नहीं जानता , पर कल साँय पाँच बजे उसके अचानक बोल उठने से घर भर आश्चर्य मिश्रित खुशी में झूम उठा ।
36 दिन बाद आखिरकार मेरे लैन्ड लाइन फोन को नई जिन्दगी मिली । सब परम पिता परमात्मा की कृपा है , व आप जैसे मित्रों की शुभकामनाओं का फल है। दुआ किजिए कि मेरे चहेते को फिर कभी यह बिमारी ना लगे और वह हमेशा खट्टी मीठी बातों से घर में रौनक बनाए रक्खे ।
आपका अपना
ओंम प्रकाश नौटियाल,बडौदा , मोबा.9427345810
लघु कथा-2
एक और गौतम बुद्ध-ओंम प्रकाश नौटियाल , बडौदा , मोबा. 9427345810
2 अप्रैल 2015
के दिन जीवन सहसा प्रकाश से आलोकित हो गया । यह सत्य घटना थी । पहली
अप्रैल गुजर चुकी थी अतः किसी मजाक की कोई
गुंजाईश नहीं थी । मैंने आसपास देखा , उपर देखा कि कहीं मैं वट वृक्ष के नीचे तो नहीं हूं क्यों कि आज से 500 ई. पू. वटवृक्ष के नीचे ही राजकुमार गौतम को वैशाख (अप्रैल-मई) पूर्णिमा के दिन ज्ञान का प्रकाश मिला था ।
वडोदरा का तो नाम ही यहाँ वड़ वृक्षों के बाहुल्य के कारण वडोदरा पडा है फिर महीना भी अप्रैल का था
मुझे भ्रम सा होने लगा कि शायद इस संसार में व्याप्त अतीव हिंसा , घृणा और अशान्ति को
दूर कर पुनः शान्ति स्थापित करने
के लिए महात्मा बुद्ध ने मेरे रूप में पुनर्जन्म लिया हो , इस भ्रम का एक कारण और भी था , मेरे जीवन में तम धीरे धीरे घर कर रहा
था , जीवन धुंधला सा गया था मुझे
भी प्रकाश की तलाश थी और इसी खोज में मैं यहाँ आया था । ज्ञान चक्षुओं पर जमी हुई
समय की गर्द को साफ कर मैं जीवन आलोकित करना चाहता था , यह तपस्या की घडी थी । और तभी मैंने पाया कि मेरे चक्षु अतीव प्रकाश पुंज में
नहाए हुए से हर साँसारिक वस्तु को स्पष्ट देख रहे हैं , किंतु मैं वट वृक्ष के नीचे तो कतई नहीं था ।
तभी एक आवाज से
मेरी तंद्रा भंग हुई । परिचित सी आवाज थी ,
" मिस्टर नौटियाल, यौर कैटरेक्ट सर्जरी इन बोथ आईज इज़ डन सक्सेसफुली , य़ू कैन नाव सी एवरीथिंग ( अर्थात
नौटियाल जी , आपकी दोनो आँखों
का मोतियाबिंद का औपरेशन सफलतापूर्वक हो
गया है, अब आप सब कुछ स्पष्ट देख सकते
हैं ) ।" डाक्टर की बात सुनकर बुद्ध होने के मेरे सभी भ्रम धराशायी हो गए । मुझे
चक्षु खुलने की खुशी तो हुई किंतु साथ ही इस बात का दुख भी हुआ कि संसार आज के इस
विषाद भरे माहौल में एक और बुद्ध पाने से वंचित रह गया ।
-ओंम प्रकाश नौटियाल
, बडौदा , मोबा. 9427345810
लघु कथा-3
डायग्नोसिस
- -ओंम प्रकाश नौटियाल , बडौदा , मोबा. 9427345810
शर्मा जी यूं तो
निहायत शरीफ आदमी थे । घर से बाहर उनको कभी किसी से उंचे स्वर में बहस करते या
किसी से झगडते नहीं देखा । हाँ घर में पत्नी और बच्चों पर वह अकसर बात बात में
झल्ला उठते थे । घर के सदस्यों को छोटी
मोटी बात में डाँटना उनकी आदत में शुमार था । हर छोटी बड़ी बात की चीर फाड़ कर उसमें
से कुछ ऐसा मथ लेते थे जो कई बार आम व्यव्हारिक बातचीत के अर्थ से कोसों दूर रहता
था यानि उन्हें कुछ दूर की कौडी लाने की आदत थी । पत्नी उनकी मीन मेख से झल्ला कर
कहती ,"आपको
तो वकील होना चाहिए था तब कम से कम घर में बात बात पर मुकदमे बाजी और वकालत के
पैंतरे चलने की जरूरत तो नहीं होती सारे शौक अदालत में पूरे करके घर आते।" बेटा ,जो एमबीए की पढाई कर रहा था, अकसर चिढाने के अंदाज में कहता ,"पापा आप तो कोई पोलिटिकल पार्टी जौयन कर लो , तकरीर
अच्छी करती हो, बहस खूब कर लेते हॊ पर घर में आपकी सुनने
वाला कौन है सिवा अम्मा के ।"
पर अभी पिछले कुछ
दिनों से शर्मा जी अपेक्षाकृत घर में भी बहुत शांत हो गए थे । कुछ स्वास्थ्य
संबंधी समस्याओं के चलते जब उन्होंने डाक्टर की सलाह पर ब्रेन एम आर आई करवाया तो
डाक्टर ने ब्रेन में एकौस्टिक नर्व पर ट्य़ूमर बताया जिसले लिए न्य़ूरो सर्जरी की
सलाह दी । शर्मा जी ने अपने को पूरी तरह सर्जरी के लिए तैय्यार कर लिया था क्योंकि
न्यूरोफिजिशियन के अनुसार यह सर्जरी अब सुरक्षित थी और इस ट्य़ूमर को निकालना ही
बेहतर था । हाँ, सर्जन को इस बात का पूरा खयाल
रखना होता है कि ब्रेन की किसी नर्व को
क्षति नहीं पहुंचे क्योंकि सर्जरी के स्थान से कई महत्वपूर्ण नर्व गुजरती
हैं और उनको किसी प्रकार की हानि अन्य गंभीर समस्याएं पैदा कर सकती है , इसलिए इस माइक्रोसर्जरी में सर्जन के अनुसार 6 -7 घन्टे
तक लग जाते हैं । शर्मा जी को सर्जन पर पूरा भरोसा था इसलिए वह निश्चिंत नजर आते
थे ,उन्होंने अंतर्जाल से भी इस विषय में बहुत जानकारी
इकट्ठी की थी जिसके आधार पर सर्जन से प्रश्न कर अपने को पूरी तरह आश्वस्त कर लिया
था और अब वह इससे निजात पाने को पूरी तरह तत्पर थे । हाँ उनके व्यवहार में घरवालॊं
के प्रति वह तीखापन न होने से शायद पत्नी और बेटे को यह बदलाव कुछ अखर रहा हॊ ।
खैर, नियत दिन पर उनकी सर्जरी हुई । 11 बजे दिन में उन्हें औपरेशन थिएटर में ले जाया गया । तकनीक के विकास के
साथ आजकल एनैस्थिसिया भी सर्जरी के
समयानुसार माकूल वक्त के लिए ही दिया जाता है और मरीज को सर्जरी के बाद जल्दी होश
भी आ जाता है। लगभग 630 बजे साँय उन्हें होश आने पर सर्जन ने
बाहर प्रतीक्षारत शर्माजी की पत्नी , बेटे से कहा
कि होश आ गया है आप लोग मिल सकते हैं ।
शर्मा जी का पुत्र
सबसे पहले लपक कर अंदर गया और पूछने लगा, "पापा कैसे हो? औपरेशन जल्दी हो
गया न?" शर्माजी ने उससे वक्त पूछा । उसके साढे छ्ः
बताने पर शर्मा जी झल्ला कर उसे डाँटते हुए बोले , ,"मैं
11 बजे यहाँ आया था , सात घण्टे से
ज्यादा हो गए हैं । तुझे यह जल्दी लग रहा है?" डाँट
खाकर बेटा इंतहा खुशी के साथ तेजी से बाहर अपनी अम्मा को बताने के लिए निकलने लगा ,
जो द्वार से अभी अंदर घुस
ही रही थी । अम्मा को देखते ही खुशी से बोला ," अम्मा ,
पापा बिल्कुल ठीक हो गए , पहले की तरह डाँटना
शुरू कर दिया है ।"
शर्मा जी ने भी उसकी
बात सुन ली , और
उसके इस डायग्नोसिस से उनके चेहरे पर भी एक हल्की मुस्कान तैर गई।
-ओंम प्रकाश नौटियाल , बडौदा , मोबा. 9427345810
लघु कथा-4
पुनर्मिलन -ओंम प्रकाश नौटियाल, बड़ौदा,
मोबा.9427345810
विनोद और प्रिया ने लगभग चार
वर्षों के प्रेम संबंध के बाद अंततः शादी
कर ली ।चार साल कैसे बीत गए उन्हें पता ही नही चला । पर शादी के कुछ दिन बाद ही
उन्हें आभास होने लगा कि जिंदगी में चमकते हुए रंगो के अतिरिक्त स्याह रंग भी है।
दोनों में छॊटी छोटी बातों का टकराव उग्र रूप धारण करते हुए छः माह बाद उन्हें
संबंध विच्छेद के कगार पर ले आया और दोनों उसी शहर में अलग अलग रहने लगे ।दादी कहा
करती थी कि प्रेम विवाह में सब कुछ अच्छा तो शादी के पहले हो जाता है , शादी के बाद तो केवल लडना झगडना शेष
रह जाता है ।जीवन के एकाकीपन को दूर करने के लिए फेसबुक बडा सहारा है । विनोद ने
महेश नाम से एक फेक ईमेल आई डी बनाया और लड्कियों
को मित्रता आग्रह भेजना शुरू कर दिया । उधर प्रिया ने भी एकाकी पन और नौकरी
की थकान दूर करने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लिया और फेसबुक पर निशा नाम से बिना
चित्र के अपना फेसबुक प्रोफाइल बना लिया ।
दोनों की मित्र सूचि बढने लगी ।
कालान्तर में महेश की एक महिला मित्र से और निशा की एक पुरुष मित्र से घनिष्ठता
बढने लगी । देर रात तक चैटिन्ग चलती । महेश ने महिला मित्र से तसवीर भेजने को
कहा तो उसने बदनामी की दुहाई देकर साफ
इंकार कर दिया ।लम्बी चैटिंग पर बहुत मान मनुहार के बाद महेश की महिला मित्र
रविवार को दिन में 11 बजे
महेश यानि विनोद से शहर के उमंग रेस्तरां में मिलने को राजी हो गई । विनोद ठीक
पाँच मिनट पहले रेस्तरां में पहुंच कर प्रतीक्षा करने लगा उसकी निगाहें प्रवेश द्वार
की ओर लगी थी । ग्यारह बजे के लगभग वह एकदम
कुछ असहज हो गया जब उसने प्रिया को रेस्तरां में प्रवेश करते देखा । प्रिया
ने भी उस पर एक नजर डाली और एक अन्य टेबल पर उसकी तरफ़ पीठ करके बैठ गई ।
निशा अभी तक नहीं आई थी। लगभग बीस
मिनट की प्रतीक्षा के बाद उसने एक काफी मंगवाई और पीने लगा । प्रिया अभी तक बैठी
थी । अचानक विनोद के दिमाग में कुछ कौंधा और वह ऊठकर प्रिया की टेबल पर साथ वाली
कुर्सी पर बैठ गया । प्रिया को जैसे उसका वहाँ बैठना कतई अच्छा नहीं लगा और वह
जाने के लिए उठ खडी हुई ।तभी विनोद के एक प्रश्न ने उसे चौंका दिया , "प्रिया तुम निशा हो न ?
" वह भीतर तक काँप सी गई पर दूसरे ही क्षण कुछ चिड्चिडे और
क्रोध भरे स्वर में बोली , " तुम महेश हो ?"
।
विनोद ने हामी में अनिच्छा से सिर
हिला दिया । " हम
दोनों जीवन भर कभी नहीं मिल सकते । मुझे पहले भी तुम पर शक होता था जो आज यकीन में
बदल गया । हरजाई ।" यह कहकर प्रिया गुस्से से तेजी से
बाहर निकल गई । और विनोद काफी के पैसे देते हुए सोच रहा था , " मैंने ऐसा क्या अलग किया जो प्रिया ने नहीं किया । फिर केवल मैं ही कैसे
हरजाई हो गया ?"यह सोचता हुआ विनोद भी धीरे धीरे बाहर
की ओर बढ़ने लगा ।
-ओंम
प्रकाश नौटियाल, बड़ौदा, मोबा.9427345810
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