ओंम प्रकाश नौटियाल
दो जून रोटी के लिए
जिल्लत के थपेडे हैं,
ईमान की हर राह में
रोडे ही रोडे हैं।
सांस लेने की खातिर
यहाँ कितने झमेले हैं,
कुछ भीड़ में खोये से हैं
कुछ अपनों मे अकेले हैं।
बाजार है दुनियाँ
लगे मेले ही मेले हैं,
कुछ को झेलती दुनियाँ
कुछ दुनियाँ को झेले हैं,
कहीं अभाव बिकता है,
कही दुर्भाव बिकता है,
कही अद्दश्य शक्ति सा
प्रभाव बिकता है,
भाव अपना तय कर
कोई हर भाव बिकता है ।
किसी का गीत बिकता है
किसी का साज बिकता है,
बडे यत्न से छुपाया
किसी का राज बिकता है।
किसी के वक्त पर ग्राहक
कोई कुछ लेट बिकता है,
कही सब शुद्ध नकली है
कहीं सब ठेठ बिकता है,
कहीं शिक्षा बिकाऊ है
कहीं पर योग बिकता है,
औषधि बेचने को
पहले कहीं पर रोग बिकता है।
कुछ परोक्ष बिकता है
कुछ प्रत्यक्ष बिकता है,
कहीं साधन बिके पहले
कहीं लक्ष्य बिकता है,
बाजार है दुनियाँ
लगे मेले ही मेले हैं,
कुछ को झेलती दुनियाँ
कुछ दुनियाँ को झेले हैं।
(मेरी नव प्रकाशित पुस्तक " साँस साँस जीवन से"
संपर्क :ompnautiyal@yahoo.com
Mob : 09427345810
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कुछ परोक्ष बिकता है
ReplyDeleteकुछ प्रत्यक्ष बिकता है,
कहीं साधन बिके पहले
कहीं लक्ष्य बिकता है,
बाजार है दुनियाँ
लगे मेले ही मेले हैं,
कुछ को झेलती दुनियाँ
कुछ दुनियाँ को झेले हैं।
...न खरीददारों के कमी है न बेचने वालों की... खरीद-फरोख्त से सरकार तक चल रही है ..
आज के हालातों के जीवंत तस्वीर प्रस्तुति कर दी आपने...आभार!
बहुत बहुत शुक्रिया कविता जी!!
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