(शिमला 07.05.2010)
शिमला की एक ऊंची पहाडी पर,
मैं देवदार का वृक्ष हूं ,
यहाँ मेरा वर्षों पुराना वास है ।
पहले मेरा एक भरा पूरा
परिवार होता था ,
मैं बन्धु बान्धवों से घिरा रहता था ,
आज मैं अकेला यहाँ उदास खडा हूं ,
सच पूछो तो मृत्यु शय्या पर पडा हूं ।
याद आते हैं अतीत के वो दिन,
जब दूर तक मेरे अपनों का बसेरा था ,
रंग बिरंगे कितने ही पक्षियों का डेरा था ,
अनेक जीवधारियों ने हमें घेरा था ,
सब हमारे मीत थे ,
गूंजते हर ओर उनके गीत थे ।
फ़िर कहीं बाहर से ,
एक मानव यहाँ आय़ा,
हमारे बीच उसने अपना घर बनाया,
मेरे कुछ मित्रॊं को गिरा कर उसे सजाया।
मेरे अपनों की कानन वाडी मध्य,
उसका आवास बना,
समय के साथ अपने साथियों के संग,
वह इस क्षेत्र में फ़ैलता रहा,
हमारे निर्मम विनाश को,
अपना विकास समझ खेलता रहा ।
पहले हमारे जंगल मध्य,
एक आध मानवी आवास था ,
अब चारों ओर जंगल है कन्क्रीट का ,
और उसके बीच, मैं तनहा,
तथाकथित विकास का गवाह,
अपने दिन गिन रहा हूं ।
मुझे शिकायत है उन भीष्म पितामहों से,
जो हर युग में द्रौपदी के चीरहरण के,
मूक दर्शक मात्र रहते हैं ।
और अपने अंतिम समय में ,
शर शय्या पर लेटे लेटॆ पश्चाताप कर,
अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं ।
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नौटियाल जी आपकी इस रचना में पहाड़ के सोंदर्यमयी अतीत ,दुखद वर्तमान और आहत भविष्य तीनो रूपों का बहुत ही मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है |
ReplyDeleteदुखद बात ये है की सब भीष्म -पितामह ही बनना चाहते है ,कोई अर्जुन या अभिमन्यु नहीं बनना चाहता जो विनाश के इस चक्र-व्ह्यु को बेधने में सक्षम हो :
सुन्दर रचना हेतु हार्दिक आभार
धन्यवाद गीतेश जी ।
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